दुख़्तर-ए-रज़ ने उठा रक्खी है आफ़त सर पर
ख़ैरियत गुज़री कि अंगूर के बेटा न हुआ
दम लबों पर था दिल-ए-ज़ार के घबराने से
आ गई जान में जान आप के आ जाने से
बुतों के पहले बंदे थे मिसों के अब हुए ख़ादिम
हमें हर अहद में मुश्किल रहा है बा-ख़ुदा होना
ख़िलाफ़-ए-शरअ कभी शैख़ थूकता भी नहीं
मगर अंधेरे उजाले में चूकता भी नहीं
ख़ुश-नसीब आज भला कौन है गौहर के सिवा
सब कुछ अल्लाह ने दे रक्खा है शौहर के सिवा
मौत आई इश्क़ में तो हमें नींद आ गई
निकली बदन से जान तो काँटा निकल गया
डाल दे जान मआ’नी में वो उर्दू ये है
करवटें लेने लगे तब्अ वो पहलू ये है
तुम्हारे वाज़ में तासीर तो है हज़रत-ए-वाइज़
असर लेकिन निगाह-ए-नाज़ का भी कम नहीं होता
शैख़ की दावत में मय का काम क्या
एहतियातन कुछ मँगा ली जाएगी
जवानी की है आमद शर्म से झुक सकती हैं आँखें
मगर सीने का फ़ित्ना रुक नहीं सकता उभरने से