सिधारें शैख़ काबा को हम इंग्लिस्तान देखेंगे
वो देखें घर ख़ुदा का हम ख़ुदा की शान देखेंगे
तश्बीह तिरे चेहरे को क्या दूँ गुल-ए-तर से
होता है शगुफ़्ता मगर इतना नहीं होता
नौकरों पर जो गुज़रती है मुझे मालूम है
बस करम कीजे मुझे बेकार रहने दीजिए
ये है कि झुकाता है मुख़ालिफ़ की भी गर्दन
सुन लो कि कोई शय नहीं एहसान से बेहतर
पूछा ‘अकबर’ है आदमी कैसा
हँस के बोले वो आदमी ही नहीं
असर ये तेरे अन्फ़ास-ए-मसीहाई का है ‘अकबर’
इलाहाबाद से लंगड़ा चला लाहौर तक पहुँचा
इन को क्या काम है मुरव्वत से अपनी रुख़ से ये मुँह न मोड़ेंगे
जान शायद फ़रिश्ते छोड़ भी दें डॉक्टर फ़ीस को न छोड़ेंगे
उन्हें भी जोश-ए-उल्फ़त हो तो लुत्फ़ उट्ठे मोहब्बत का
हमीं दिन-रात अगर तड़पे तो फिर इस में मज़ा क्या है
अगर मज़हब ख़लल-अंदाज़ है मुल्की मक़ासिद में
तो शैख़ ओ बरहमन पिन्हाँ रहें दैर ओ मसाजिद में
ग़म्ज़ा नहीं होता कि इशारा नहीं होता
आँख उन से जो मिलती है तो क्या क्या नहीं होता