क्या पूछते हो ‘अकबर’-ए-शोरीदा-सर का हाल
ख़ुफ़िया पुलिस से पूछ रहा है कमर का हाल
मस्जिद का है ख़याल न परवा-ए-चर्च है
जो कुछ है अब तो कॉलेज-ओ-टीचर में ख़र्च है
मुझ को तो देख लेने से मतलब है नासेहा
बद-ख़ू अगर है यार तो हो ख़ूब-रू तो है
रह-ओ-रस्म-ए-मोहब्बत इन हसीनों से मैं क्या रक्खूँ
जहाँ तक देखता हूँ नफ़अ उन का है ज़रर अपना
निगाहें कामिलों पर पड़ ही जाती हैं ज़माने की
कहीं छुपता है ‘अकबर’ फूल पत्तों में निहाँ हो कर
कमर-ए-यार है बारीकी से ग़ाएब हर चंद
मगर इतना तो कहूँगा कि वो मा’दूम नहीं
का’बे से जो बुत निकले भी तो क्या काबा ही गया जो दिल से निकल
अफ़्सोस कि बुत भी हम से छुटे क़ब्ज़े से ख़ुदा का घर भी गया
नज़र उन की रही कॉलेज के बस इल्मी फ़वाएद पर
गिरा के चुपके चुपके बिजलियाँ दीनी अक़ाएद पर
जल्वा न हो मअ’नी का तो सूरत का असर क्या
बुलबुल गुल-ए-तस्वीर का शैदा नहीं होता
इज़्ज़त का है न औज न नेकी की मौज है
हमला है अपनी क़ौम पे लफ़्ज़ों की फ़ौज है