ख़ाक से सैंकड़ों उगे ख़ुर्शीद
है अंधेरा मगर चराग़-तले
मैं जिस रफ़्तार से तूफ़ाँ की जानिब बढ़ता जाता हूँ
उसी रफ़्तार से नज़दीक साहिल होता जाता है
बला से कुछ हो हम ‘एहसान’ अपनी ख़ू न छोड़ेंगे
हमेशा बे-वफ़ाओं से मिलेंगे बा-वफ़ा हो कर
शोरिश-ए-इश्क़ में है हुस्न बराबर का शरीक
सोच कर जुर्म-ए-तमन्ना की सज़ा दो हम को
हम हक़ीक़त हैं तो तस्लीम न करने का सबब
हाँ अगर हर्फ़-ए-ग़लत हैं तो मिटा दो हम को
ये कौन हँस के सेहन-ए-चमन से गुज़र गया
अब तक हैं फूल चाक गरेबाँ किए हुए
ऐसे अंजान बने बैठे हो
तुम को कुछ भी न पता हो जैसे
दिल की शगुफ़्तगी के साथ राहत-ए-मय-कदा गई
फ़ुर्सत-ए-मय-कशी तो है हसरत-ए-मय-कशी नहीं
मरने वाले फ़ना भी पर्दा है
उठ सके गर तो ये हिजाब उठा
सता लो मुझे ज़िंदगी में सता लो
खुलेगा पस-ए-मर्ग एहसान क्या था