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एहसान दानिश के चुनिंदा शेर

हम चटानें हैं कोई रेत के साहिल तो नहीं
शौक़ से शहर-पनाहों में लगा दो हम को


मक़्सद-ए-ज़ीस्त ग़म-ए-इश्क़ है सहरा हो कि शहर
बैठ जाएँगे जहाँ चाहो बिठा दो हम को


सुनता हूँ सुरंगों थे फ़रिश्ते मिरे हुज़ूर
मैं जाने अपनी ज़ात के किस मरहले में था


कुछ अपने साज़-ए-नफ़स की न क़द्र की तू ने
कि इस रबाब से बेहतर कोई रबाब न था


ये उजालों के जज़ीरे ये सराबों के दयार
सेहर-ओ-अफ़्सूँ के सिवा जश्न-ए-तरब कुछ भी नहीं


दमक रहा है जो नस नस की तिश्नगी से बदन
इस आग को न तिरा पैरहन छुपाएगा


किसे ख़बर थी कि ये दौर-ए-ख़ुद-ग़रज़ इक दिन
जुनूँ से क़ीमत-ए-दार-ओ-रसन छुपाएगा


ब-जुज़ उस के ‘एहसान’ को क्या समझिए
बहारों में खोया हुआ इक शराबी


फ़ुसून-ए-शेर से हम उस मह-ए-गुरेज़ाँ को
ख़लाओं से सर-ए-काग़ज़ उतार लाए हैं


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By: Ehsan Danish

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