ग़म-ए-दिल अब किसी के बस का नहीं
क्या दवा क्या दुआ करे कोई
तुम अज़ीज़ और तुम्हारा ग़म भी अज़ीज़
किस से किस का गिला करे कोई
वो पूछते हैं दिल-ए-मुब्तला का हाल और हम
जवाब में फ़क़त आँसू बहाए जाते हैं
मिरा वजूद हक़ीक़त मिरा अदम धोका
फ़ना की शक्ल में सर-चश्मा-ए-बक़ा हूँ मैं
बेदर्द मुझ से शरह-ए-ग़म-ए-ज़िंदगी न पूछ
काफ़ी है इस क़दर कि जिए जा रहा हूँ मैं
उस ने इस अंदाज़ से देखा मुझे
ज़िंदगी भर का गिला जाता रहा
अब वो पीरी में कहाँ अहद-ए-जवानी की उमंग
रंग मौजों का बदल जाता है साहिल के क़रीब
अब क्यूँ गिला रहेगा मुझे हिज्र-ए-यार का
बे-ताबियों से लुत्फ़ उठाने लगा हूँ मैं
तू है बहार तो दामन मिरा हो क्यूँ ख़ाली
इसे भी भर दे गुलों से तुझे ख़ुदा की क़सम
ग़ज़ब है ये एहसास वारस्तगी का
कि तुझ से भी ख़ुद को बरी चाहता हूँ