आ ही गया वो मुझ को लहद में उतारने
ग़फ़लत ज़रा न की मिरे ग़फ़लत-शिआर ने
ज़ब्त-ए-गिर्या कभी करता हूँ तो फ़रमाते हैं
आज क्या बात है बरसात नहीं होती है
ऐ मिरी जान अपने जी के सिवा
कौन तेरा है कौन मेरा है
जैसे वीराने से टकरा के पलटती है सदा
दिल के हर गोशे से आई तिरी आवाज़ मुझे
मोहब्बत करो और निबाहो तो पूछूँ
ये दुश्वारियाँ हैं कि आसानियाँ हैं
मैं वो बस्ती हूँ कि याद-ए-रफ़्तगाँ के भेस में
देखने आती है अब मेरी ही वीरानी मुझे
कैसे बंद हुआ मय-ख़ाना अब मालूम हुआ
पी न सका कम-ज़र्फ़ ज़माना अब मालूम हुआ
तेरे कूचे में है सकूँ वर्ना
हर ज़मीं आसमान है प्यारे
इन तल्ख़ आँसुओं को न यूँ मुँह बना के पी
ये मय है ख़ुद-कशीद इसे मुस्कुरा के पी
अभी मीआद बाक़ी है सितम की
मोहब्बत की सज़ा है और मैं हूँ