देखा न कारोबार-ए-मोहब्बत कभी ‘हफ़ीज़’
फ़ुर्सत का वक़्त ही न दिया कारोबार ने
सुनाता है क्या हैरत-अंगेज़ क़िस्से
हसीनों में खोई हो जिस ने जवानी
तौबा तौबा शैख़ जी तौबा का फिर किस को ख़याल
जब वो ख़ुद कह दे कि पी थोड़ी सी पी मेरे लिए
ख़ुदा को न तकलीफ़ दे डूबने में
किसी नाख़ुदा के सहारे चला चल
है मुद्दआ-ए-इश्क़ ही दुनिया-ए-मुद्दआ
ये मुद्दआ न हो तो कोई मुद्दआ न हो
हाँ कैफ़-ए-बे-ख़ुदी की वो साअत भी याद है
महसूस कर रहा था ख़ुदा हो गया हूँ मैं
ये भी इक धोका था नैरंग-ए-तिलिस्म-ए-अक़्ल का
अपनी हस्ती पर भी हस्ती का हुआ धोका मुझे
‘हफ़ीज़’ अहल-ए-ज़बाँ कब मानते थे
बड़े ज़ोरों से मनवाया गया हूँ
चराग़-ए-ख़ाना-ए-दर्वेश हूँ मैं
इधर जलता उधर बुझता रहा हूँ
वो सरख़ुशी दे कि ज़िंदगी को शबाब से बहर-याब कर दे
मिरे ख़यालों में रंग भर दे मिरे लहू को शराब कर दे