अहबाब का शिकवा क्या कीजिए ख़ुद ज़ाहिर ओ बातिन एक नहीं
लब ऊपर ऊपर हँसते हैं दिल अंदर अंदर रोता है
हाथ रख रख के वो सीने पे किसी का कहना
दिल से दर्द उठता है पहले कि जिगर से पहले
उस की सूरत को देखता हूँ मैं
मेरी सीरत वो देखता ही नहीं
नहीं इताब-ए-ज़माना ख़िताब के क़ाबिल
तिरा जवाब यही है कि मुस्कुराए जा
दिल सभी कुछ ज़बान पर लाया
इक फ़क़त अर्ज़-ए-मुद्दआ के सिवा
ब-ज़ाहिर सादगी से मुस्कुरा कर देखने वालो
कोई कम-बख़्त ना-वाक़िफ़ अगर दीवाना हो जाए
नासेह को बुलाओ मिरा ईमान सँभाले
फिर देख लिया उस ने शरारत की नज़र से
ऐ ‘हफ़ीज़’ आह आह पर आख़िर
क्या कहें दोस्त वाह वा के सिवा
सुपुर्द-ए-ख़ाक ही करना था मुझ को
तो फिर काहे को नहलाया गया हूँ
मिरा तजरबा है कि इस ज़िंदगी में
परेशानियाँ ही परेशानियाँ हैं