पहचान गया सैलाब है उस के सीने में अरमानों का
देखा जो सफ़ीने को मेरे जी छूट गया तूफ़ानों का
इतना मानूस हूँ फ़ितरत से कली जब चटकी
झुक के मैं ने ये कहा मुझ से कुछ इरशाद किया?
अब ऐ ख़ुदा इनायत-ए-बेजा से फ़ाएदा
मानूस हो चुके हैं ग़म-ए-जावेदाँ से हम
इक न इक ज़ुल्मत से जब वाबस्ता रहना है तो ‘जोश’
ज़िंदगी पर साया-ए-ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ क्यूँ न हो
अल्लाह रे हुस्न-ए-दोस्त की आईना-दारियाँ
अहल-ए-नज़र को नक़्श-ब-दीवार कर दिया
अब दिल का सफ़ीना क्या उभरे तूफ़ाँ की हवाएँ साकिन हैं
अब बहर से कश्ती क्या खेले मौजों में कोई गिर्दाब नहीं
ज़रा आहिस्ता ले चल कारवान-ए-कैफ़-ओ-मस्ती को
कि सत्ह-ए-ज़ेहन-ए-आलम सख़्त ना-हमवार है साक़ी
जितने गदा-नवाज़ थे कब के गुज़र चुके
अब क्यूँ बिछाए बैठे हैं हम बोरिया न पूछ
दुनिया ने फ़सानों को बख़्शी अफ़्सुर्दा हक़ाएक़ की तल्ख़ी
और हम ने हक़ाएक़ के नक़्शे में रंग भरा अफ़्सानों का
मिले जो वक़्त तो ऐ रह-रव-ए-रह-ए-इक्सीर
हक़ीर ख़ाक से भी साज़-बाज़ करता जा