याँ लब पे लाख लाख सुख़न इज़्तिराब में
वाँ एक ख़ामुशी तिरी सब के जवाब में
दिखाने को नहीं हम मुज़्तरिब हालत ही ऐसी है
मसल है रो रहे हो क्यूँ कहा सूरत ही ऐसी है
ऐ ‘ज़ौक़’ वक़्त नाले के रख ले जिगर पे हाथ
वर्ना जिगर को रोएगा तू धर के सर पे हाथ
पीर-ए-मुग़ाँ के पास वो दारू है जिस से ‘ज़ौक़’
नामर्द मर्द मर्द-ए-जवाँ-मर्द हो गया
उठते उठते मैं ने इस हसरत से देखा है उन्हें
अपनी बज़्म-ए-नाज़ से मुझ को उठा कर रो दिए
फिर मुझे ले चला उधर देखो
दिल-ए-ख़ाना-ख़राब की बातें
राहत के वास्ते है मुझे आरज़ू-ए-मर्ग
ऐ ‘ज़ौक़’ गर जो चैन न आया क़ज़ा के बाद
रिंद-ए-ख़राब-हाल को ज़ाहिद न छेड़ तू
तुझ को पराई क्या पड़ी अपनी नबेड़ तू
बैठे भरे हुए हैं ख़ुम-ए-मय की तरह हम
पर क्या करें कि मोहर है मुँह पर लगी हुई
अज़ीज़ो इस को न घड़ियाल की सदा समझो
ये उम्र-ए-रफ़्ता की अपनी सदा-ए-पा समझो