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शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ के चुनिंदा शेर

ऐ शम्अ तेरी उम्र-ए-तबीई है एक रात
हँस कर गुज़ार या इसे रो कर गुज़ार दे


इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क़द्र-ए-सुख़न
कौन जाए ‘ज़ौक़’ पर दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर


सब को दुनिया की हवस ख़्वार लिए फिरती है
कौन फिरता है ये मुर्दार लिए फिरती है


रुलाएगी मिरी याद उन को मुद्दतों साहब
करेंगे बज़्म में महसूस जब कमी मेरी


वक़्त-ए-पीरी शबाब की बातें
ऐसी हैं जैसे ख़्वाब की बातें


क्या देखता है हाथ मिरा छोड़ दे तबीब
याँ जान ही बदन में नहीं नब्ज़ क्या चले


तुम जिसे याद करो फिर उसे क्या याद रहे
न ख़ुदाई की हो परवा न ख़ुदा याद रहे


देख छोटों को है अल्लाह बड़ाई देता
आसमाँ आँख के तिल में है दिखाई देता


बे-क़रारी का सबब हर काम की उम्मीद है
ना-उमीदी हो तो फिर आराम की उम्मीद है


हम नहीं वो जो करें ख़ून का दावा तुझ पर
बल्कि पूछेगा ख़ुदा भी तो मुकर जाएँगे


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By: Muhammad Ibrahim Zauq

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