ल उस निगह के ज़ख़्म-रसीदों में मिल गया
ये भी लहू लगा के शहीदों में मिल गया
मज़कूर तिरी बज़्म में किस का नहीं आता
पर ज़िक्र हमारा नहीं आता नहीं आता
बुझने की दिल की आग नहीं ज़ेर-ए-ख़ाक भी
होगा दरख़्त गोर पे मेरी चिनार का
हो उम्र-ए-ख़िज़्र भी तो हो मालूम वक़्त-ए-मर्ग
हम क्या रहे यहाँ अभी आए अभी चले
है ऐन-ए-वस्ल में भी मिरी चश्म सू-ए-दर
लपका जो पड़ गया है मुझे इंतिज़ार का
लेते हैं समर शाख़-ए-समरवर को झुका कर
झुकते हैं सख़ी वक़्त-ए-करम और ज़ियादा
कहते हैं आज ‘ज़ौक़’ जहाँ से गुज़र गया
क्या ख़ूब आदमी था ख़ुदा मग़्फ़िरत करे
मोअज़्ज़िन मर्हबा बर-वक़्त बोला
तिरी आवाज़ मक्के और मदीने
देती शर्बत है किसे ज़हर भरी आँख तिरी
ऐन एहसान है वो ज़हर भी गर देती है
मिरा घर तेरी मंज़िल गाह हो ऐसे कहाँ तालेअ’
ख़ुदा जाने किधर का चाँद आज ऐ माह-रू निकला