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शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ के चुनिंदा शेर

रहता सुख़न से नाम क़यामत तलक है ‘ज़ौक़’
औलाद से तो है यही दो पुश्त चार पुश्त


ख़त बढ़ा काकुल बढ़े ज़ुल्फ़ें बढ़ीं गेसू बढ़े
हुस्न की सरकार में जितने बढ़े हिन्दू बढ़े


जो कहोगे तुम कहेंगे हम भी हाँ यूँ ही सही
आप की गर यूँ ख़ुशी है मेहरबाँ यूँ ही सही


न हुआ पर न हुआ ‘मीर’ का अंदाज़ नसीब
‘ज़ौक़’ यारों ने बहुत ज़ोर ग़ज़ल में मारा


गया शैतान मारा एक सज्दा के न करने में
अगर लाखों बरस सज्दे में सर मारा तो क्या मारा


पिला मय आश्कारा हम को किस की साक़िया चोरी
ख़ुदा से जब नहीं चोरी तो फिर बंदे से क्या चोरी


दुनिया ने किस का राह-ए-फ़ना में दिया है साथ
तुम भी चले चलो यूँही जब तक चली चले


शुक्र पर्दे ही में उस बुत को हया ने रक्खा
वर्ना ईमान गया ही था ख़ुदा ने रक्खा


बाक़ी है दिल में शैख़ के हसरत गुनाह की
काला करेगा मुँह भी जो दाढ़ी सियाह की


हमें नर्गिस का दस्ता ग़ैर के हाथों से क्यूँ भेजा
जो आँखें ही दिखानी थीं दिखाते अपनी नज़रों से


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By: Muhammad Ibrahim Zauq

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