न दीन के हुए मोहसिन हम और न दुनिया के
बुतों से हम न मिले और हमें ख़ुदा न मिला
वाइज़ की आँखें खुल गईं पीते ही साक़िया
ये जाम-ए-मय था या कोई दरिया-ए-नूर था
दीवाना-वार दौड़ के कोई लिपट न जाए
आँखों में आँखें डाल के देखा न कीजिए
पहाड़ काटने वाले ज़मीं से हार गए
इसी ज़मीन में दरिया समाए हैं क्या क्या
क्यूँ किसी से वफ़ा करे कोई
दिल न माने तो क्या करे कोई
शर्बत का घूँट जान के पीता हूँ ख़ून-ए-दिल
ग़म खाते खाते मुँह का मज़ा तक बिगड़ गया
वही साक़ी वही साग़र वही शीशा वही बादा
मगर लाज़िम नहीं हर एक पर यकसाँ असर होना
जैसे दोज़ख़ की हवा खा के अभी आया हो
किस क़दर वाइज़-ए-मक्कार डराता है मुझे
बुतों को देख के सब ने ख़ुदा को पहचाना
ख़ुदा के घर तो कोई बंदा-ए-ख़ुदा न गया
झाँकने ताकने का वक़्त गया
अब वो हम हैं न वो ज़माना है