ऐ ज़ुल्म के मातो लब खोलो चुप रहने वालो चुप कब तक
कुछ हश्र तो उन से उट्ठेगा कुछ दूर तो नाले जाएँगे
मता-ए-लौह-ओ-क़लम छीन गई तो क्या ग़म है
कि ख़ून-ए-दिल में डुबो ली हैं उँगलियाँ मैं ने
चमन पे ग़ारत-ए-गुल-चीं से जाने क्या गुज़री
क़फ़स से आज सबा बे-क़रार गुज़री है
वो बुतों ने डाले हैं वसवसे कि दिलों से ख़ौफ़-ए-ख़ुदा गया
वो पड़ी हैं रोज़ क़यामतें कि ख़याल-ए-रोज़-ए-जज़ा गया
फ़रेब-ए-आरज़ू की सहल-अँगारी नहीं जाती
हम अपने दिल की धड़कन को तिरी आवाज़-ए-पा समझे
मिरी चश्म-ए-तन-आसाँ को बसीरत मिल गई जब से
बहुत जानी हुई सूरत भी पहचानी नहीं जाती
जवाँ-मर्दी उसी रिफ़अत पे पहुँची
जहाँ से बुज़दिली ने जस्त की थी
करो कज जबीं पे सर-ए-कफ़न मिरे क़ातिलों को गुमाँ न हो
कि ग़ुरूर-ए-इश्क़ का बाँकपन पस-ए-मर्ग हम ने भुला दिया
नहीं शिकायत-ए-हिज्राँ कि इस वसीले से
हम उन से रिश्ता-ए-दिल उस्तुवार करते रहे
जो तलब पे अहद-ए-वफ़ा किया तो वो आबरू-ए-वफ़ा गई
सर-ए-आम जब हुए मुद्दई तो सवाब-ए-सिदक़-ओ-वफ़ा गया