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फैज़ अहमद फैज़ के चुनिंदा शेर

जुदा थे हम तो मयस्सर थीं क़ुर्बतें कितनी
बहम हुए तो पड़ी हैं जुदाइयाँ क्या क्या


ख़ैर दोज़ख़ में मय मिले न मिले
शैख़-साहब से जाँ तो छुटेगी


मिन्नत-ए-चारा-साज़ कौन करे
दर्द जब जाँ-नवाज़ हो जाए


अदा-ए-हुस्न की मासूमियत को कम कर दे
गुनाहगार-ए-नज़र को हिजाब आता है


ग़म-ए-जहाँ हो रुख़-ए-यार हो कि दस्त-ए-अदू
सुलूक जिस से किया हम ने आशिक़ाना किया


तेज़ है आज दर्द-ए-दिल साक़ी
तल्ख़ी-ए-मय को तेज़-तर कर दे


फिर नज़र में फूल महके दिल में फिर शमएँ जलीं
फिर तसव्वुर ने लिया उस बज़्म में जाने का नाम


हम सहल-तलब कौन से फ़रहाद थे लेकिन
अब शहर में तेरे कोई हम सा भी कहाँ है


शैख़ साहब से रस्म-ओ-राह न की
शुक्र है ज़िंदगी तबाह न की


हर सदा पर लगे हैं कान यहाँ
दिल सँभाले रहो ज़बाँ की तरह


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By: Faiz Ahmad Faiz

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