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फैज़ अहमद फैज़ के चुनिंदा शेर

वो जब भी करते हैं इस नुत्क़ ओ लब की बख़िया-गरी
फ़ज़ा में और भी नग़्मे बिखरने लगते हैं


अपनी नज़रें बिखेर दे साक़ी
मय ब-अंदाज़ा-ए-ख़ुमार नहीं


ज़ेर-ए-लब है अभी तबस्सुम-ए-दोस्त
मुंतशिर जल्वा-ए-बहार नहीं


हदीस-ए-यार के उनवाँ निखरने लगते हैं
तो हर हरीम में गेसू सँवरने लगते हैं


जल उठे बज़्म-ए-ग़ैर के दर-ओ-बाम
जब भी हम ख़ानुमाँ-ख़राब आए


गर्मी-ए-शौक़-ए-नज़ारा का असर तो देखो
गुल खिले जाते हैं वो साया-ए-तर तो देखो


जो नफ़स था ख़ार-ए-गुलू बना जो उठे थे हाथ लहू हुए
वो नशात-ए-आह-ए-सहर गई वो वक़ार-ए-दस्त-ए-दुआ गया


चंग ओ नय रंग पे थे अपने लहू के दम से
दिल ने लय बदली तो मद्धम हुआ हर साज़ का रंग


सजाओ बज़्म ग़ज़ल गाओ जाम ताज़ा करो
”बहुत सही ग़म-ए-गीती शराब कम क्या है”


मय-ख़ाना सलामत है तो हम सुर्ख़ी-ए-मय से
तज़ईन-ए-दर-ओ-बाम-ए-हरम करते रहेंगे


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By: Faiz Ahmad Faiz

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