शेर

मीर तक़ी मीर के चुनिंदा शेर

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Mir Taqi Mir

मत रंजा कर किसी को कि अपने तो ए’तिक़ाद
दिल ढाए कर जो काबा बनाया तो क्या हुआ


धौला चुके थे मिल कर कल लौंडे मय-कदे के
पर सरगिराँ हो वाइ’ज़ जाता रहा सटक कर


दिल कि यक क़तरा ख़ूँ नहीं है बेश
एक आलम के सर बला लाया


रू-ए-सुख़न है कीधर अहल-ए-जहाँ का या रब
सब मुत्तफ़िक़ हैं इस पर हर एक का ख़ुदा है


मीर उस क़ाज़ी के लौंडे के लिए आख़िर मुआ
सब को क़ज़िया उस के जीने का था बारे चुक गया


तन के मामूरे में यही दिल-ओ-चश्म
घर थे दो सो ख़राब हैं दोनों


इज्ज़-ओ-नियाज़ अपना अपनी तरफ़ है सारा
इस मुश्त-ए-ख़ाक को हम मसजूद जानते हैं


कपड़े गले के मेरे न हों आब-दीदा क्यूँ
मानिंद-ए-अब्र दीदा-ए-तर अब तो छा गया


बज़्म-ए-इशरत में मलामत हम निगूँ बख़्तों के तईं
जूँ हुबाब-ए-बादा साग़र सर-निगूँ हो जाएगा


काम उस के लब से है मुझे बिंत-उल-इनब से क्या
है आब-ए-ज़ि़ंदगी भी तो ले जाए मुर्दा-शो


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