शेर

मीर तक़ी मीर के चुनिंदा शेर

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Mir Taqi Mir

दिल की वीरानी का क्या मज़कूर है
ये नगर सौ मर्तबा लूटा गया


इश्क़ इक ‘मीर’ भारी पत्थर है
कब ये तुझ ना-तवाँ से उठता है


फूल गुल शम्स ओ क़मर सारे ही थे
पर हमें उन में तुम्हीं भाए बहुत


शाम से कुछ बुझा सा रहता हूँ
दिल हुआ है चराग़ मुफ़्लिस का


होगा किसी दीवार के साए में पड़ा ‘मीर’
क्या रब्त मोहब्बत से उस आराम-तलब को


मत सहल हमें जानो फिरता है फ़लक बरसों
तब ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं


‘मीर’ अमदन भी कोई मरता है
जान है तो जहान है प्यारे


बेवफ़ाई पे तेरी जी है फ़िदा
क़हर होता जो बा-वफ़ा होता


रोते फिरते हैं सारी सारी रात
अब यही रोज़गार है अपना


क्या कहूँ तुम से मैं कि क्या है इश्क़
जान का रोग है बला है इश्क़


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