शेर

मीर तक़ी मीर के चुनिंदा शेर

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Mir Taqi Mir

शर्त सलीक़ा है हर इक अम्र में
ऐब भी करने को हुनर चाहिए


वस्ल में रंग उड़ गया मेरा
क्या जुदाई को मुँह दिखाऊँगा


मिरे सलीक़े से मेरी निभी मोहब्बत में
तमाम उम्र मैं नाकामियों से काम लिया


यही जाना कि कुछ न जाना हाए
सो भी इक उम्र में हुआ मालूम


इश्क़ में जी को सब्र ओ ताब कहाँ
उस से आँखें लड़ीं तो ख़्वाब कहाँ


‘मीर’ बंदों से काम कब निकला
माँगना है जो कुछ ख़ुदा से माँग


‘मीर’ हम मिल के बहुत ख़ुश हुए तुम से प्यारे
इस ख़राबे में मिरी जान तुम आबाद रहो


इश्क़ माशूक़ इश्क़ आशिक़ है
यानी अपना ही मुब्तला है इश्क़


जब कि पहलू से यार उठता है
दर्द बे-इख़्तियार उठता है


अमीर-ज़ादों से दिल्ली के मिल न ता-मक़्दूर
कि हम फ़क़ीर हुए हैं इन्हीं की दौलत से


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