शेर

मीर तक़ी मीर के चुनिंदा शेर

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Mir Taqi Mir

अब देख ले कि सीना भी ताज़ा हुआ है चाक
फिर हम से अपना हाल दिखाया न जाएगा


इश्क़ ही इश्क़ है जहाँ देखो
सारे आलम में भर रहा है इश्क़


हज़ार मर्तबा बेहतर है बादशाही से
अगर नसीब तिरे कूचे की गदाई हो


फिरते हैं ‘मीर’ ख़्वार कोई पूछता नहीं
इस आशिक़ी में इज़्ज़त-ए-सादात भी गई


किसू से दिल नहीं मिलता है या रब
हुआ था किस घड़ी उन से जुदा मैं


मुझ को शायर न कहो ‘मीर’ कि साहब मैं ने
दर्द ओ ग़म कितने किए जम्अ तो दीवान किया


यूँ नाकाम रहेंगे कब तक जी में है इक काम करें
रुस्वा हो कर मर जावें उस को भी बदनाम करें


मिरा जी तो आँखों में आया ये सुनते
कि दीदार भी एक दिन आम होगा


पढ़ते फिरेंगे गलियों में इन रेख़्तों को लोग
मुद्दत रहेंगी याद ये बातें हमारीयाँ


हस्ती अपनी हबाब की सी है
ये नुमाइश सराब की सी है


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