शेर

मीर तक़ी मीर के चुनिंदा शेर

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Mir Taqi Mir

हम ने अपनी सी की बहुत लेकिन
मरज़-ए-इश्क़ का इलाज नहीं


होश जाता नहीं रहा लेकिन
जब वो आता है तब नहीं आता


शिकवा-ए-आबला अभी से ‘मीर’
है पियारे हनूज़ दिल्ली दूर


दिल से रुख़्सत हुई कोई ख़्वाहिश
गिर्या कुछ बे-सबब नहीं आता


दिल्ली के न थे कूचे औराक़-ए-मुसव्वर थे
जो शक्ल नज़र आई तस्वीर नज़र आई


अहद-ए-जवानी रो रो काटा पीरी में लीं आँखें मूँद
यानी रात बहुत थे जागे सुब्ह हुई आराम किया


ग़म रहा जब तक कि दम में दम रहा
दिल के जाने का निहायत ग़म रहा


खिलना कम कम कली ने सीखा है
उस की आँखों की नीम-ख़्वाबी से


इश्क़ है इश्क़ करने वालों को
कैसा कैसा बहम क्या है इश्क़


दे के दिल हम जो हो गए मजबूर
इस में क्या इख़्तियार है अपना


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