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अहमद फ़राज़ के चुनिंदा शेर

शिकवा-ए-ज़ुल्मत-ए-शब से तो कहीं बेहतर था
अपने हिस्से की कोई शम्अ’ जलाते जाते


उजाड़ घर में ये ख़ुशबू कहाँ से आई है
कोई तो है दर-ओ-दीवार के अलावा भी


तू इतनी दिल-ज़दा तो न थी ऐ शब-ए-फ़िराक़
आ तेरे रास्ते में सितारे लुटाएँ हम


न मिरे ज़ख़्म खिले हैं न तिरा रंग-ए-हिना
मौसम आए ही नहीं अब के गुलाबों वाले


‘फ़राज़’ तू ने उसे मुश्किलों में डाल दिया
ज़माना साहब-ए-ज़र और सिर्फ़ शाएर तू


हमें भी अर्ज़-ए-तमन्ना का ढब नहीं आता
मिज़ाज-ए-यार भी सादा है क्या किया जाए


अब उसे लोग समझते हैं गिरफ़्तार मिरा
सख़्त नादिम है मुझे दाम में लाने वाला


ये अब जो आग बना शहर शहर फैला है
यही धुआँ मिरे दीवार ओ दर से निकला था


‘मीर’ के मानिंद अक्सर ज़ीस्त करता था ‘फ़राज़’
था तो वो दीवाना सा शाइर मगर अच्छा लगा


हम को उस शहर में तामीर का सौदा है जहाँ
लोग मेमार को चुन देते हैं दीवार के साथ


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By: Ahmad Faraz

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