न शब ओ रोज़ ही बदले हैं न हाल अच्छा है
किस बरहमन ने कहा था कि ये साल अच्छा है
‘फ़राज़’ तर्क-ए-तअल्लुक़ तो ख़ैर क्या होगा
यही बहुत है कि कम कम मिला करो उस से
कितना आसाँ था तिरे हिज्र में मरना जानाँ
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते जाते
सिलवटें हैं मिरे चेहरे पे तो हैरत क्यूँ है
ज़िंदगी ने मुझे कुछ तुम से ज़ियादा पहना
याद आई है तो फिर टूट के याद आई है
कोई गुज़री हुई मंज़िल कोई भूली हुई दोस्त
लो फिर तिरे लबों पे उसी बेवफ़ा का ज़िक्र
अहमद ‘फ़राज़’ तुझ से कहा न बहुत हुआ
ज़िंदगी पर इस से बढ़ कर तंज़ क्या होगा ‘फ़राज़’
उस का ये कहना कि तू शाएर है दीवाना नहीं
भरी बहार में इक शाख़ पर खिला है गुलाब
कि जैसे तू ने हथेली पे गाल रक्खा है
हम-सफ़र चाहिए हुजूम नहीं
इक मुसाफ़िर भी क़ाफ़िला है मुझे
चुप-चाप अपनी आग में जलते रहो ‘फ़राज़’
दुनिया तो अर्ज़-ए-हाल से बे-आबरू करे