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अहमद फ़राज़ के चुनिंदा शेर

मेरी ख़ातिर न सही अपनी अना की ख़ातिर
अपने बंदों से तो पिंदार ख़ुदाई ले ले


किस को बिकना था मगर ख़ुश हैं कि इस हीले से
हो गईं अपने ख़रीदार से बातें क्या क्या


साक़ी ये ख़मोशी भी तो कुछ ग़ौर-तलब है
साक़ी तिरे मय-ख़्वार बड़ी देर से चुप हैं


तेरे क़ामत से भी लिपटी है अमर-बेल कोई
मेरी चाहत को भी दुनिया की नज़र खा गई दोस्त


चले थे यार बड़े ज़ोम में हवा की तरह
पलट के देखा तो बैठे हैं नक़्श-ए-पा की तरह


जाने किस आलम में तू बिछड़ा कि है तेरे बग़ैर
आज तक हर नक़्श फ़रियादी मिरी तहरीर का


तअ’ना-ए-नश्शा न दो सब को कि कुछ सोख़्ता-जाँ
शिद्दत-ए-तिश्ना-लबी से भी बहक जाते हैं


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By: Ahmad Faraz

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