अगरचे ज़ोर हवाओं ने डाल रक्खा है
मगर चराग़ ने लौ को संभाल रक्खा है
‘फ़राज़’ इश्क़ की दुनिया तो ख़ूब-सूरत थी
ये किस ने फ़ित्ना-ए-हिज्र-ओ-विसाल रक्खा है
हम अगर मंज़िलें न बन पाए
मंज़िलों तक का रास्ता हो जाएँ
एक सफ़र वो है जिस में
पाँव नहीं दिल थकता है
हम तिरे शौक़ में यूँ ख़ुद को गँवा बैठे हैं
जैसे बच्चे किसी त्यौहार में गुम हो जाएँ
कभी ‘फ़राज़’ से आ कर मिलो जो वक़्त मिले
ये शख़्स ख़ूब है अशआर के अलावा भी
टूटा तो हूँ मगर अभी बिखरा नहीं ‘फ़राज़’
मेरे बदन पे जैसे शिकस्तों का जाल हो
अभी तो जाग रहे हैं चराग़ राहों के
अभी है दूर सहर थोड़ी दूर साथ चलो
जिस से ये तबीअत बड़ी मुश्किल से लगी थी
देखा तो वो तस्वीर हर इक दिल से लगी थी
मैं रात टूट के रोया तो चैन से सोया
कि दिल का ज़हर मिरी चश्म-ए-तर से निकला था