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अहमद फ़राज़ के चुनिंदा शेर

मुद्दतें हो गईं ‘फ़राज़’ मगर
वो जो दीवानगी कि थी है अभी


तेरे बग़ैर भी तो ग़नीमत है ज़िंदगी
ख़ुद को गँवा के कौन तिरी जुस्तुजू करे


किसे ख़बर वो मोहब्बत थी या रक़ाबत थी
बहुत से लोग तुझे देख कर हमारे हुए


ये दिल का दर्द तो उम्रों का रोग है प्यारे
सो जाए भी तो पहर दो पहर को जाता है


सामने उम्र पड़ी है शब-ए-तन्हाई की
वो मुझे छोड़ गया शाम से पहले पहले


तू सामने है तो फिर क्यूँ यक़ीं नहीं आता
ये बार बार जो आँखों को मल के देखते हैं


ऐसा है कि सब ख़्वाब मुसलसल नहीं होते
जो आज तो होते हैं मगर कल नहीं होते


सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते
वर्ना इतने तो मरासिम थे कि आते जाते


साए हैं अगर हम तो हो क्यूँ हम से गुरेज़ाँ
दीवार अगर हैं तो गिरा क्यूँ नहीं देते


तू ख़ुदा है न मिरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इंसाँ हैं तो क्यूँ इतने हिजाबों में मिलें


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By: Ahmad Faraz

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