शेर

मीर तक़ी मीर के चुनिंदा शेर

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Mir Taqi Mir

राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या
आगे आगे देखिए होता है क्या


पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है


उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया


आग थे इब्तिदा-ए-इश्क़ में हम
अब जो हैं ख़ाक इंतिहा है ये


अब तो जाते हैं बुत-कदे से ‘मीर’
फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया


नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है


हम हुए तुम हुए कि ‘मीर’ हुए
उस की ज़ुल्फ़ों के सब असीर हुए


बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो
ऐसा कुछ कर के चलो याँ कि बहुत याद रहो


कोई तुम सा भी काश तुम को मिले
मुद्दआ हम को इंतिक़ाम से है


याद उस की इतनी ख़ूब नहीं ‘मीर’ बाज़ आ
नादान फिर वो जी से भुलाया न जाएगा


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