यार से अब के गर मिलूँ ‘ताबाँ’
तो फिर उस से जुदा न हूँ ‘ताबाँ’
वे शख़्स जिन से फ़ख़्र जहाँ को था अब वे हाए
ऐसे गए कि उन का कहीं नाम ही नहीं
हरम को छोड़ रहूँ क्यूँ न बुत-कदे में शैख़
कि याँ हर एक को है मर्तबा ख़ुदाई का
आता है मोहतसिब पए-ताज़ीर मय-कशो
पगड़ी को उस की फेंक दो दाढ़ी को लो उखाड़
दुनिया कि नेक ओ बद से मुझे कुछ ख़बर नहीं
इतना नहीं जहाँ मैं कोई बे-ख़बर कि हम
हिज्र में उस बुत-ए-काफ़िर के तड़पते हैं पड़े
अहल-ए-ज़ुन्नार कहीं साहब-ए-इस्लाम कहीं
एक बुलबुल भी चमन में न रही अब की फ़सल
ज़ुल्म ऐसा ही किया तू ने ऐ सय्याद कि बस
ब’अद मुद्दत के माह-रू आया
क्यूँ न उस के गले लगूँ ‘ताबाँ’
यहाँ यार और बरदार कोई नहीं किसी का
दुनिया के बीच ‘ताबाँ’ हम किस से दिल लगावें
अगर तू शोहरा-ए-आफ़ाक़ है तो तेरे बंदों में
हमें भी जानता है ख़ूब इक आलम मियाँ-साहिब