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ताबाँ अब्दुल हई के चुनिंदा शेर

तू कौन है ऐ वाइज़ जो मुझ को डराता है
मैं की भी हैं तो की हैं अल्लाह की तक़्सीरें


‘ताबाँ’ ज़ि-बस हवा-ए-जुनूँ सर में है मिरे
अब मैं हूँ और दश्त है ये सर है और पहाड़


हमारे मय-कदे में हैं जो कुछ की निय्यतें ज़ाहिर
कब इस ख़ूबी से ऐ ज़ाहिद तिरा बैत-ए-हरम होगा


ऐ मर्द-ए-ख़ुदा हो तू परस्तार बुताँ का
मज़हब में मिरे कुफ़्र है इंकार बुताँ का


न थे आशिक़ किसी बे-दाद पर हम जब तलक ‘ताबाँ’
हमारे दिल के तईं कुछ दर्द-ओ-ग़म तब तक न था हरगिज़


सुने क्यूँ-कर वो लब्बैक-ए-हरम को
जिसे नाक़ूस की आए सदा ख़ुश


सफ़र दुनिया से करना क्या है ‘ताबाँ’
अदम हस्ती से राह-ए-यक-नफ़स है


फिर मेहरबाँ हुआ है ‘ताबाँ’ मिरा सितमगर
बातें तिरी किसी ने शायद सुनाइयाँ हैं


नेमत-ए-अल्वान भी ख़्वान-ए-फ़लक की देख ली
माह नान-ए-ख़ाम है और महर नान-ए-सोख़्ता


तक रहा है ये कोई सोने की चिड़िया आ फँसे
दाम-ए-सुब्हा ले के ज़ाहिद गिर्या-ए-मिस्कीं की तरह


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By: Taban Abdul Hai

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