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ताबाँ अब्दुल हई के चुनिंदा शेर

तिरी बात लावे जो पैग़ाम-बर
वही है मिरे हक़ में रूह-उल-अमीं


ग़ज़ालों को तिरी आँखें से कुछ निस्बत नहीं हरगिज़
कि ये आहू हैं शहरी और वे वहशी हैं जंगल के


सोहबत-ए-शैख़ में तू रात को जाया मत कर
वो सिखा देगा तुझे जान नमाज़-ए-माकूस


ख़्वान-ए-फ़लक पे नेमत-ए-अलवान है कहाँ
ख़ाली हैं महर-ओ-माह की दोनो रिकाबियाँ


गर्म अज़-बस-कि है बाज़ार-ए-बुताँ ऐ ज़ाहिद
रश्क से टुकड़े हुआ है हज्र-ए-अस्वद भी


कई बारी बिना हो जिस की फिर कहते हैं टूटेगा
ये हुर्मत जिस की हो ऐ शैख़ क्या तेरा वो मक्का है


दूँ सारी ख़ुदाई को एवज़ उन के मैं ‘ताबाँ’
कोई मुझ सा बता दे तू ख़रीदार बुताँ का


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By: Taban Abdul Hai

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