तिरी बात लावे जो पैग़ाम-बर
वही है मिरे हक़ में रूह-उल-अमीं
ग़ज़ालों को तिरी आँखें से कुछ निस्बत नहीं हरगिज़
कि ये आहू हैं शहरी और वे वहशी हैं जंगल के
सोहबत-ए-शैख़ में तू रात को जाया मत कर
वो सिखा देगा तुझे जान नमाज़-ए-माकूस
ख़्वान-ए-फ़लक पे नेमत-ए-अलवान है कहाँ
ख़ाली हैं महर-ओ-माह की दोनो रिकाबियाँ
गर्म अज़-बस-कि है बाज़ार-ए-बुताँ ऐ ज़ाहिद
रश्क से टुकड़े हुआ है हज्र-ए-अस्वद भी
कई बारी बिना हो जिस की फिर कहते हैं टूटेगा
ये हुर्मत जिस की हो ऐ शैख़ क्या तेरा वो मक्का है
दूँ सारी ख़ुदाई को एवज़ उन के मैं ‘ताबाँ’
कोई मुझ सा बता दे तू ख़रीदार बुताँ का