जिस का गोरा रंग हो वो रात को खिलता है ख़ूब
रौशनाई शम्अ की फीकी नज़र आती है सुब्ह
ख़ुदा देवे अगर क़ुदरत मुझे तो ज़िद है ज़ाहिद की
जहाँ तक मस्जिदें हैं मैं बनाऊँ तोड़ बुत-ख़ाना
ईमान ओ दीं से ‘ताबाँ’ कुछ काम नहीं है हम को
साक़ी हो और मय हो दुनिया हो और हम हों
मैं तो तालिब दिल से हूँगा दीन का
दौलत-ए-दुनिया मुझे मतलूब नहीं
मुझ से बीमार है मिरा ज़ालिम
ये सितम किस तरह सहूँ ‘ताबाँ’
ज़ाहिद हो और तक़्वा आबिद हो और मुसल्ला
माला हो और बरहमन सहबा हो और हम हों
आइने को तिरी सूरत से न हो क्यूँ कर हैरत
दर ओ दीवार तुझे देख के हैरान है आज
आईना रू-ब-रू रख और अपनी छब दिखाना
क्या ख़ुद-पसंदियाँ हैं क्या ख़ुद-नुमाईयाँ हैं
ज़ाहिद तिरा तो दीन सरासर फ़रेब है
रिश्ते से तेरे सुब्हा के ज़ुन्नार ही भला
ये जो हैं अहल-ए-रिया आज फ़क़ीरों के बीच
कल गिनेंगे हुमक़ा उन ही को पीरों के बीच