शिकवा-ए-ग़म तिरे हुज़ूर किया
हम ने बे-शक बड़ा क़ुसूर किया
खींच लेना वो मिरा पर्दे का कोना दफ़अतन
और दुपट्टे से तिरा वो मुँह छुपाना याद है
पैग़ाम-ए-हयात-ए-जावेदाँ था
हर नग़्मा-ए-कृष्ण बाँसुरी का
है मश्क़-ए-सुख़न जारी चक्की की मशक़्क़त भी
इक तुर्फ़ा तमाशा है ‘हसरत’ की तबीअत भी
ग़ैर की नज़रों से बच कर सब की मर्ज़ी के ख़िलाफ़
वो तिरा चोरी-छुपे रातों को आना याद है
सभी कुछ हो चुका उन का हमारा क्या रहा ‘हसरत’
न दीं अपना न दिल अपना न जाँ अपनी न तन अपना
शेर मेरे भी हैं पुर-दर्द व-लेकिन ‘हसरत’
‘मीर’ का शेवा-ए-गुफ़्तार कहाँ से लाऊँ
शाम हो या कि सहर याद उन्हीं की रखनी
दिन हो या रात हमें ज़िक्र उन्हीं का करना
वस्ल की बनती हैं इन बातों से तदबीरें कहीं
आरज़ूओं से फिरा करती हैं तक़दीरें कहीं
दावा-ए-आशिक़ी है तो ‘हसरत’ करो निबाह
ये क्या के इब्तिदा ही में घबरा के रह गए