देखा किए वो मस्त निगाहों से बार बार
जब तक शराब आई कई दौर हो गए
कट गई एहतियात-ए-इश्क़ में उम्र
हम से इज़हार-ए-मुद्दआ न हुआ
अल्लाह-री जिस्म-ए-यार की ख़ूबी कि ख़ुद-ब-ख़ुद
रंगीनियों में डूब गया पैरहन तमाम
फिर और तग़ाफ़ुल का सबब क्या है ख़ुदाया
मैं याद न आऊँ उन्हें मुमकिन ही नहीं है
कहाँ हम कहाँ वस्ल-ए-जानाँ की ‘हसरत’
बहुत है उन्हें इक नज़र देख लेना
‘हसरत’ की भी क़ुबूल हो मथुरा में हाज़िरी
सुनते हैं आशिक़ों पे तुम्हारा करम है आज
कभी की थी जो अब वफ़ा कीजिएगा
मुझे पूछ कर आप क्या कीजिएगा
ग़म-ए-आरज़ू का ‘हसरत’ सबब और क्या बताऊँ
मिरी हिम्मतों की पस्ती मिरे शौक़ की बुलंदी
जो और कुछ हो तिरी दीद के सिवा मंज़ूर
तो मुझ पे ख़्वाहिश-ए-जन्नत हराम हो जाए
जबीं पर सादगी नीची निगाहें बात में नरमी
मुख़ातिब कौन कर सकता है तुम को लफ़्ज़-ए-क़ातिल से