तासीर-ए-बर्क़-ए-हुस्न जो उन के सुख़न में थी
इक लर्ज़िश-ए-ख़फ़ी मिरे सारे बदन में थी
बे-ज़बानी तर्जुमान-ए-शौक़ बेहद हो तो हो
वर्ना पेश-ए-यार काम आती है तक़रीरें कहीं
छेड़ नाहक़ न ऐ नसीम-ए-बहार
सैर-ए-गुल का यहाँ किसे है दिमाग़
तासीर-ए-बर्क़-ए-हुस्न जो उन के सुख़न में थी
इक लर्ज़िश-ए-ख़फ़ी मिरे सारे बदन में थी
बे-ज़बानी तर्जुमान-ए-शौक़ बेहद हो तो हो
वर्ना पेश-ए-यार काम आती है तक़रीरें कहीं
छेड़ नाहक़ न ऐ नसीम-ए-बहार
सैर-ए-गुल का यहाँ किसे है दिमाग़
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