आदमी क्या वो न समझे जो सुख़न की क़द्र को
नुत्क़ ने हैवाँ से मुश्त-ए-ख़ाक को इंसाँ किया
क़ैद-ए-मज़हब की गिरफ़्तारी से छुट जाता है
हो न दीवाना तो है अक़्ल से इंसाँ ख़ाली
पयाम-बर न मयस्सर हुआ तो ख़ूब हुआ
ज़बान-ए-ग़ैर से क्या शरह-ए-आरज़ू करते
कुफ़्र ओ इस्लाम की कुछ क़ैद नहीं ऐ ‘आतिश’
शैख़ हो या कि बरहमन हो पर इंसाँ होवे
शब-ए-वस्ल थी चाँदनी का समाँ था
बग़ल में सनम था ख़ुदा मेहरबाँ था
किसी ने मोल न पूछा दिल-ए-शिकस्ता का
कोई ख़रीद के टूटा पियाला क्या करता
हमेशा मैं ने गरेबाँ को चाक चाक किया
तमाम उम्र रफ़ूगर रहे रफ़ू करते
काट कर पर मुतमइन सय्याद बे-परवा न हो
रूह बुलबुल की इरादा रखती है परवाज़ का
अदम से दहर में आना किसे गवारा था
कशाँ कशाँ मुझे लाई है आरज़ू तेरी
दुनिया ओ आख़िरत में तलबगार हैं तिरे
हासिल तुझे समझते हैं दोनों जहाँ में हम