मसनद-ए-शाही की हसरत हम फ़क़ीरों को नहीं
फ़र्श है घर में हमारे चादर-ए-महताब का
आसार-ए-इश्क़ आँखों से होने लगे अयाँ
बेदारी की तरक़्क़ी हुई ख़्वाब कम हुआ
आज तक अपनी जगह दिल में नहीं अपने हुई
यार के दिल में भला पूछो तो घर क्यूँ-कर करें
भरा है शीशा-ए-दिल को नई मोहब्बत से
ख़ुदा का घर था जहाँ वाँ शराब-ख़ाना हुआ
क़ामत तिरी दलील क़यामत की हो गई
काम आफ़्ताब-ए-हश्र का रुख़्सार ने किया
कू-ए-जानाँ में भी अब इस का पता मिलता नहीं
दिल मिरा घबरा के क्या जाने किधर जाता रहा
मुझ में और शम्अ’ में होती थी ये बातें शब-ए-हिज्र
आज की रात बचेंगे तो तो सहर देखें गे
मैं उस गुलशन का बुलबुल हूँ बहार आने नहीं पाती
कि सय्याद आन कर मेरा गुलिस्ताँ मोल लेते हैं
बयाँ ख़्वाब की तरह जो कर रहा है
ये क़िस्सा है जब का कि ‘आतिश’ जवाँ था
ऐ फ़लक कुछ तो असर हुस्न-ए-अमल में होता
शीशा इक रोज़ तो वाइज़ के बग़ल में होता