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हैदर अली आतिश के चुनिंदा शेर

मिरी तरह से मह-ओ-महर भी हैं आवारा
किसी हबीब की ये भी हैं जुस्तुजू करते


मय-कदे में नश्शा की ऐनक दिखाती है मुझे
आसमाँ मस्त ओ ज़मीं मस्त ओ दर-ओ-दीवार मस्त


न जब तक कोई हम-प्याला हो मैं मय नहीं पीता
नहीं मेहमाँ तो फ़ाक़ा है ख़लीलुल्लाह के घर में


ऐसी ऊँची भी तो दीवार नहीं घर की तिरे
रात अँधेरी कोई आवेगी न बरसात में क्या


अमरद-परस्त है तो गुलिस्ताँ की सैर कर
हर नौनिहाल रश्क है याँ ख़ुर्द-साल का


ज़ियारत होगी काबे की यही ताबीर है इस की
कई शब से हमारे ख़्वाब में बुत-ख़ाना आता है


उस गुल-बदन की बू-ए-बदन कुछ न पूछिए
बंद-ए-क़बा जो खोल दिए घर महक गया


वहशत-ए-दिल ने किया है वो बयाबाँ पैदा
सैकड़ों कोस नहीं सूरत-ए-इंसाँ पैदा


काबा ओ दैर में है किस के लिए दिल जाता
यार मिलता है तो पहलू ही में है मिल जाता


सिवाए रंज कुछ हासिल नहीं है इस ख़राबे में
ग़नीमत जान जो आराम तू ने कोई दम पाया


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By: Khwaja Haidar Ali Aatish

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