तलब दुनिया को कर के ज़न-मुरीदी हो नहीं सकती
ख़याल-ए-आबरू-ए-हिम्मत-ए-मर्दाना आता है
बरहमन खोले हीगा बुत-कदा का दरवाज़ा
बंद रहने का नहीं कार-ए-ख़ुदा-साज़ अपना
शीरीं के शेफ़्ता हुए परवेज़ ओ कोहकन
शाएर हूँ मैं ये कहता हूँ मज़मून लड़ गया
हमारा काबा-ए-मक़्सूद तेरा ताक़-ए-अबरू है
तिरी चश्म-ए-सियह को हम ने आहु-ए-हरम पाया
किसी की महरम-ए-आब-ए-रवाँ की याद आई
हबाब के जो बराबर कभी हबाब आया
करता है क्या ये मोहतसिब-ए-संग-दिल ग़ज़ब
शीशों के साथ दिल न कहीं चूर चूर हों
ठीक आई तन पे अपने क़बा-ए-बरहनगी
बानी लिबास छोटे हुए या बड़े हुए
कूचा-ए-यार में हो रौशनी अपने दम की
काबा ओ दैर करें गब्र ओ मुसलमाँ आबाद
मस्त हाथी है तिरी चश्म-ए-सियह-मस्त ऐ यार
सफ़-ए-मिज़्गाँ उसे घेरे हुए है भालों से
बहर-ए-हस्ती सा कोई दरिया-ए-बे-पायाँ नहीं
आसमान-ए-नील-गूँ सा सब्ज़ा-ए-साहिल कहाँ