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मिर्ज़ा ग़ालिब के चुनिंदा शेर

ताअत में ता रहे न मय-ओ-अँगबीं की लाग
दोज़ख़ में डाल दो कोई ले कर बहिश्त को


वा-हसरता कि यार ने खींचा सितम से हाथ
हम को हरीस-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार देख कर


ऐ नवा-साज़-ए-तमाशा सर-ब-कफ़ जलता हूँ मैं
इक तरफ़ जलता है दिल और इक तरफ़ जलता हूँ मैं


तू और आराइश-ए-ख़म-ए-काकुल
मैं और अंदेशा-हा-ए-दूर-दराज़


मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
सिवाए ख़ून-ए-जिगर सो जिगर में ख़ाक नहीं


कम नहीं जल्वागरी में, तिरे कूचे से बहिश्त
यही नक़्शा है वले इस क़दर आबाद नहीं


हैं आज क्यूँ ज़लील कि कल तक न थी पसंद
गुस्ताख़ी-ए-फ़रिश्ता हमारी जनाब में


पूछे है क्या वजूद ओ अदम अहल-ए-शौक़ का
आप अपनी आग के ख़स-ओ-ख़ाशाक हो गए


ने तीर कमाँ में है न सय्याद कमीं में
गोशे में क़फ़स के मुझे आराम बहुत है


विदाअ ओ वस्ल में हैं लज़्ज़तें जुदागाना
हज़ार बार तू जा सद-हज़ार बार आ जा


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By: Mirza Ghalib

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