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मिर्ज़ा ग़ालिब के चुनिंदा शेर

ज़ोफ़ में तअना-ए-अग़्यार का शिकवा क्या है
बात कुछ सर तो नहीं है कि उठा भी न सकूँ


है काएनात को हरकत तेरे ज़ौक़ से
परतव से आफ़्ताब के ज़र्रे में जान है


जब तक कि न देखा था क़द-ए-यार का आलम
मैं मो’तक़िद-ए-फ़ित्ना-ए-महशर न हुआ था


जज़्बा-ए-बे-इख़्तियार-ए-शौक़ देखा चाहिए
सीना-ए-शमशीर से बाहर है दम शमशीर का


हम से खुल जाओ ब-वक़्त-ए-मय-परस्ती एक दिन
वर्ना हम छेड़ेंगे रख कर उज़्र-ए-मस्ती एक दिन


गुंजाइश-ए-अदावत-ए-अग़्यार यक तरफ़
याँ दिल में ज़ोफ़ से हवस-ए-यार भी नहीं


गिरनी थी हम पे बर्क़-ए-तजल्ली न तूर पर
देते हैं बादा ज़र्फ़-ए-क़दह-ख़्वार देख कर


है तमाशा-गाह-ए-सोज़-ए-ताज़ा हर यक उज़्व-ए-तन
जूँ चराग़ान-ए-दिवाली सफ़-ब-सफ़ जलता हूँ मैं


धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीम-तन के पाँव
रखता है ज़िद से खींच के बाहर लगन के पाँव


वादा आने का वफ़ा कीजे ये क्या अंदाज़ है
तुम ने क्यूँ सौंपी है मेरे घर की दरबानी मुझे


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By: Mirza Ghalib

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