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मिर्ज़ा ग़ालिब के चुनिंदा शेर

इक ख़ूँ-चकाँ कफ़न में करोड़ों बनाओ हैं
पड़ती है आँख तेरे शहीदों पे हूर की


पिन्हाँ था दाम-ए-सख़्त क़रीब आशियान के
उड़ने न पाए थे कि गिरफ़्तार हम हुए


फिर देखिए अंदाज़-ए-गुल-अफ़्शानी-ए-गुफ़्तार
रख दे कोई पैमाना-ए-सहबा मेरे आगे


देखना क़िस्मत कि आप अपने पे रश्क आ जाए है
मैं उसे देखूँ भला कब मुझ से देखा जाए है


ग़लती-हा-ए-मज़ामीं मत पूछ
लोग नाले को रसा बाँधते हैं


ज़बाँ पे बार-ए-ख़ुदाया ये किस का नाम आया
कि मेरे नुत्क़ ने बोसे मिरी ज़बाँ के लिए


हर क़दम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायाँ मुझ से
मेरी रफ़्तार से भागे है बयाबाँ मुझ से


मैं ना-मुराद दिल की तसल्ली को क्या करूँ
माना कि तेरे रुख़ से निगह कामयाब है


है गै़ब-ए-ग़ैब जिस को समझते हैं हम शुहूद
हैं ख़्वाब में हुनूज़ जो जागे हैं ख़्वाब में


चाहते हैं ख़ूब-रूयों को ‘असद’
आप की सूरत तो देखा चाहिए


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By: Mirza Ghalib

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