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मिर्ज़ा ग़ालिब के चुनिंदा शेर

मुँह न दिखलावे न दिखला पर ब-अंदाज़-ए-इताब
खोल कर पर्दा ज़रा आँखें ही दिखला दे मुझे


लेता हूँ मकतब-ए-ग़म-ए-दिल में सबक़ हनूज़
लेकिन यही कि रफ़्त गया और बूद था


सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का
वो इक गुल-दस्ता है हम बे-ख़ुदों के ताक़-ए-निस्याँ का


गरचे है तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल पर्दा-दार-ए-राज़-ए-इश्क़
पर हम ऐसे खोए जाते हैं कि वो पा जाए है


ख़ुदा शरमाए हाथों को कि रखते हैं कशाकश में
कभी मेरे गरेबाँ को कभी जानाँ के दामन को


जल्वे का तेरे वो आलम है कि गर कीजे ख़याल
दीदा-ए-दिल को ज़ियारत-गाह-ए-हैरानी करे


ज़ोफ़ से गिर्या मुबद्दल ब-दम-ए-सर्द हुआ
बावर आया हमें पानी का हवा हो जाना


काफ़ी है निशानी तिरा छल्ले का न देना
ख़ाली मुझे दिखला के ब-वक़्त-ए-सफ़र अंगुश्त


मैं ने जुनूँ से की जो ‘असद’ इल्तिमास-ए-रंग
ख़ून-ए-जिगर में एक ही ग़ोता दिया मुझे


है मुश्तमिल नुमूद-ए-सुवर पर वजूद-ए-बहर
याँ क्या धरा है क़तरा ओ मौज-ओ-हबाब में


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By: Mirza Ghalib

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