मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
दिल भी या-रब कई दिए होते
दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ
कब वो सुनता है कहानी मेरी
और फिर वो भी ज़बानी मेरी
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए
साहब को दिल न देने पे कितना ग़ुरूर था
कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा ‘ग़ालिब’ और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले
करने गए थे उस से तग़ाफ़ुल का हम गिला
की एक ही निगाह कि बस ख़ाक हो गए
मरते हैं आरज़ू में मरने की
मौत आती है पर नहीं आती
हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती
कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता
सादिक़ हूँ अपने क़ौल का ‘ग़ालिब’ ख़ुदा गवाह
कहता हूँ सच कि झूट की आदत नहीं मुझे