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मिर्ज़ा ग़ालिब के चुनिंदा शेर

यूसुफ़ उस को कहो और कुछ न कहे ख़ैर हुई
गर बिगड़ बैठे तो मैं लाइक़-ए-ताज़ीर भी था


मिसाल ये मिरी कोशिश की है कि मुर्ग़-ए-असीर
करे क़फ़स में फ़राहम ख़स आशियाँ के लिए


हर बुल-हवस ने हुस्न-परस्ती शिआ’र की
अब आबरू-ए-शेवा-ए-अहल-ए-नज़र गई


नश्शा-ए-रंग से है वाशुद-ए-गुल
मस्त कब बंद-ए-क़बा बाँधते हैं


निस्यह-ओ-नक़्द-ए-दो-आलम की हक़ीक़त मालूम
ले लिया मुझ से मिरी हिम्मत-ए-आली ने मुझे


जहाँ तेरा नक़्श-ए-क़दम देखते हैं
ख़याबाँ ख़याबाँ इरम देखते हैं

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By: Mirza Ghalib

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