चलता हूँ थोड़ी दूर हर इक तेज़-रौ के साथ
पहचानता नहीं हूँ अभी राहबर को मैं
मैं भला कब था सुख़न-गोई पे माइल ‘ग़ालिब’
शेर ने की ये तमन्ना के बने फ़न मेरा
बोसा कैसा यही ग़नीमत है
कि न समझे वो लज़्ज़त-ए-दुश्नाम
रौ में है रख़्श-ए-उम्र कहाँ देखिए थमे
ने हाथ बाग पर है न पा है रिकाब में
ख़ूब था पहले से होते जो हम अपने बद-ख़्वाह
कि भला चाहते हैं और बुरा होता है
ज़िद की है और बात मगर ख़ू बुरी नहीं
भूले से उस ने सैकड़ों वादे वफ़ा किए
हर इक मकान को है मकीं से शरफ़ ‘असद’
मजनूँ जो मर गया है तो जंगल उदास है
अहल-ए-बीनश को है तूफ़ान-ए-हवादिस मकतब
लुत्मा-ए-मौज कम अज़ सैली-ए-उस्ताद नहीं
लेता नहीं मिरे दिल-ए-आवारा की ख़बर
अब तक वो जानता है कि मेरे ही पास है
लिखते रहे जुनूँ की हिकायात-ए-ख़ूँ-चकाँ
हर-चंद इस में हाथ हमारे क़लम हुए