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नासिर काज़मी के चुनिंदा शेर

तिरे आने का धोका सा रहा है
दिया सा रात भर जलता रहा है


उस ने मंज़िल पे ला के छोड़ दिया
उम्र भर जिस का रास्ता देखा


इस शहर-ए-बे-चराग़ में जाएगी तू कहाँ
आ ऐ शब-ए-फ़िराक़ तुझे घर ही ले चलें


दिन भर तो मैं दुनिया के धंदों में खोया रहा
जब दीवारों से धूप ढली तुम याद आए


कपड़े बदल कर बाल बना कर कहाँ चले हो किस के लिए
रात बहुत काली है ‘नासिर’ घर में रहो तो बेहतर है


अपनी धुन में रहता हूँ
मैं भी तेरे जैसा हूँ


रात कितनी गुज़र गई लेकिन
इतनी हिम्मत नहीं कि घर जाएँ


तुझ बिन सारी उम्र गुज़ारी
लोग कहेंगे तू मेरा था


निय्यत-ए-शौक़ भर न जाए कहीं
तू भी दिल से उतर न जाए कहीं


हाल-ए-दिल हम भी सुनाते लेकिन
जब वो रुख़्सत हुआ तब याद आया


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By: Nasir Kazmi

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