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वसीम बरेलवी के चुनिंदा शेर

हर शख़्स दौड़ता है यहाँ भीड़ की तरफ़
फिर ये भी चाहता है उसे रास्ता मिले


चराग़ घर का हो महफ़िल का हो कि मंदिर का
हवा के पास कोई मस्लहत नहीं होती


सभी रिश्ते गुलाबों की तरह ख़ुशबू नहीं देते
कुछ ऐसे भी तो होते हैं जो काँटे छोड़ जाते हैं


मैं जिन दिनों तिरे बारे में सोचता हूँ बहुत
उन्हीं दिनों तो ये दुनिया समझ में आती है


कोई इशारा दिलासा न कोई व’अदा मगर
जब आई शाम तिरा इंतिज़ार करने लगे


मुझे पढ़ता कोई तो कैसे पढ़ता
मिरे चेहरे पे तुम लिक्खे हुए थे


हम ये तो नहीं कहते कि हम तुझ से बड़े हैं
लेकिन ये बहुत है कि तिरे साथ खड़े हैं


किसी से कोई भी उम्मीद रखना छोड़ कर देखो
तो ये रिश्ता निभाना किस क़दर आसान हो जाए


जो मुझ में तुझ में चला आ रहा है बरसों से
कहीं हयात इसी फ़ासले का नाम न हो


वो पूछता था मिरी आँख भीगने का सबब
मुझे बहाना बनाना भी तो नहीं आया


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By: Wasim Barelvi

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