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वसीम बरेलवी के चुनिंदा शेर

तिरे ख़याल के हाथों कुछ ऐसा बिखरा हूँ
कि जैसे बच्चा किताबें इधर उधर कर दे


क्या दुख है समुंदर को बता भी नहीं सकता
आँसू की तरह आँख तक आ भी नहीं सकता


अपनी इस आदत पे ही इक रोज़ मारे जाएँगे
कोई दर खोले न खोले हम पुकारे जाएँगे


थके-हारे परिंदे जब बसेरे के लिए लौटें
सलीक़ा-मंद शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है


तहरीर से वर्ना मिरी क्या हो नहीं सकता
इक तू है जो लफ़्ज़ों में अदा हो नहीं सकता


कभी लफ़्ज़ों से ग़द्दारी न करना
ग़ज़ल पढ़ना अदाकारी न करना


मैं उस को पूज तो सकता हूँ छू नहीं सकता
जो फ़ासलों की तरह मेरे साथ रहता है


‘वसीम’ देखना मुड़ मुड़ के वो उसी की तरफ़
किसी को छोड़ के जाना भी तो नहीं आया


ये किस मक़ाम पे लाई है मेरी तन्हाई
कि मुझ से आज कोई बद-गुमाँ नहीं होता


जिस्म की चाह लकीरों से अदा करता है
ख़ाक समझेगा मुसव्विर तिरी अंगड़ाई को


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By: Wasim Barelvi

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